बचपन के बिना बचपन ...!
जीवन के आखरी पड़ाव पर जब पहुच जाये कोई और उससे पूछा जाये ,की यदि जीवन का कोई एक पड़ाव फिर से जीने को मिले तो वो कोंन सा जीवन को जीना पसंद करेगा ...जवाव सवाभाविक होगा जवानी या बचपन ,जवानी में भी वो मज़ा ना रहा होगा जो बचपन में मिला था ,यू तो जवानी के बारे में कहा जाता है एक बार जाये तो वापस ना आये ,पर एसा तो कुछ भी नही जो वापस आ सके ,
पर बचपन तो वो यादें होती हैं जो उम्र के हर पड़ाव पर हमारे साथ होती हैं ,किसी भी समय में हताश -निराश बैठे हों और शुरू कर दो बचपन की बाते ,अरे...!हताशा -निराशा एक दम छु -मंतर ,...हैं ना !
कभी सोचा है ,यदि ये बचपन की यादे जीवन में ना बनती ,तो कुछ कमी सी तो जरुर खलती ,कुछ अभाव सा महसूस तो होता कुछ होता जो सोचने को ,याद करने को ,बनता ही नही ,जो हमारे चहेरे पर मुस्करहट ला देता है ,वो बचपन की यादें ना होने पर जीवन अधुरा सा तो लगता ही ...?
अपने जीवन को हम अपने बचपन के बिना कल्पना भी नही कर सकते ,पर कुछ ऐसे अभागे बच्चे हैं ,जो वो यादे बुन ही नहीं सकते जो उनके जीवन में अधूरे पन को भरेगी ,खाली बैठे समय में उन्हें मुस्कान देगी ,एक खिड़की खोल कर जो गमो के मोसम में भी खुशियों की लहेरे देगी ...!वो ना लोट आने वाले बचपन के अभाव में भारत में १९८६ राष्टीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के अनुसार ,१ करोड़ ७३ लाख ,बच्चे अपने बचपन से म्हेरुह्म हैं ,
जगजीत सिंह की कुछ पंक्तिया याद आती है ,...
''ये दोलत भी लेलो ,ये शोरत भी लेलो ,
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी ,
पर मुझको लोतादो वो बारिश का पानी ,वो कागज़ की कश्ती ,
....ये दोलत भी ....
ये पंक्तिया अपने जीवन को दोबारा जीने की और इशारा कर रही है ,जगजीत सिंह की तरह हम लोग भी समान्य है ,जो ये फरियाद कर सकते हैं ,बचपन को कोई लोटा दे ये कहे सकते हैं ,
ये कहे देने में ही सब कुछ जी लिया ,...बचपन तो लोटे ना लोटे पर ये फरियाद करने में ही सकू भी छिपा है ,ख़ुशी भी एक एसास भी ,जो कोई नही छीन सकता ...,
पर उन् अभागे बच्चो को तो ये फरियाद करने का हक़ भी नहीं मिला ,
''बुन पाते गर कोई पल ,
ऐसा कुछ सामान भी ना मिला ,
लिख पाता तक़दीर में कुछ ,
पर लिखने को वो हाथ भी ना मिला ''
२००६ बालषम कानून संशोधन के बाद भी कई षेत्रो में कानून की अनदेखी हो रही है ,राजधानी देहली में ही ६०००० बच्चे बालषम के रूप में ढ़ाबो और चाये की दुकानों पर लगे है ,अन्य राज्यों में भी हालात देनिये है आकड़ो को लिखने लगे तो उन्ही पर नज़र ठेर सकती है आकड़ो से हटकर कुछ और भी जरुरत है बहार निकलते समय नजरो के सामने आते उन् अभागे बच्चो पर सबका धयान जाता तो होगा पर केन्द्रित नही होता होगा ,जरुरत है तो धयान केन्द्रित करने की ,उस मासूम बचपन पर जो बचपान के बावजूद बचपन नही जी पा रहे ,अपने हाथो में तक़दीर बनाने की जगह वे बीडी -माचिस ,चूड़ी ...का निर्माण कर रहे है जो औरो के हाथ की शोभा बनेगी ,पर बचपन से महरूम बच्चो के हाथो में घाव दे रही हैं जो बीडी किसी की गश का आनंद बन सकू देगी वो बचपन से म्हेरुम बच्चो का चेअन छीन रही हैं ,
मिस्टर इंडिया ,सिंड्रेला ,लाल परी,की कहानियो का अभाव ,शिक्षा ग्रहण कर एक अच्हा नागरिक बनने का और देश का भविष्य बनने
का अवसर नहीं ,
जिस देश में प्रथम प्रधान मंत्री पंडित जहवार लाल नेहेरू ने बच्चो के म्हेत्व को इंगित करते हुवे अपने जन्मदिन को बालदिवस के रूप में रूपांतरित करा ,
वाही उसी भारत देश का बालसम में संसार के सबसे उच्चे स्थान पर विराजमान होना ,अपने आप में देनिये है ,
बेहतरीन पोस्ट।
ReplyDeleteविचारणीय मुददा।
रीना जी आपकी लेखनी में लगातार निखार दिख रहा है।
अच्छा है।
लिखते रहें।
शुभकामनाएं आपको।
Bachpan to bachpan hi hota hai...saarthak aalekh...reena badhai
ReplyDeletethanx monika ji bhot bhot dhanyewad
ReplyDeletebahut achcha
ReplyDeletethanx rajesh sir
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